ॐ नमः शिवायः

Thursday, March 29, 2007

ॐ नमः शिवायः

ॐ नमः शिवायः

शिव महापुराण

भक्ति व् ज्ञान का परम सरोवर है शिव महापुराण-

यदपि अनंत है तब पर भी प्रभु ने इसे एक लाख श्लोक में प्रगट किया जन कल्याण  हेतु पर अब यह सुविधा स्वरुप २४००० श्लोक में उपलब्ध है

इसका प्रगटेय वेड व्यास जी द्वारा किया गया और सूत जी द्वारा उद्घोषित

सात सहिताये-{सप्त सागर-सप्त प्रकास पिंड की तरह परम प्रकाशिक सत्य मय}

विन्धेश्वेर संहिता

रूद्र संहिता

मन रूद्र संहिता

कोटि रूद्र संहिता

उमा संहिता

कैलाश संहिता

वारवीय संहिता

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देव राज किरात नगर वासी धर्म विमुख व् दुराचारी था परिजनों का वध कर सब धन दुराचार में लुटा दिया वृधा वस्था में न धन रहा न स्वार्थी साथी-तब प्रतिष्ठान पुर में शिवालय में शरण ले कर शिव भक्ति पथ पर चला -शिव कृपा से वह दुराचारी भी शिव लोक का अधिकारी हुआ

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शिव कृपा

बिंदुक व् उसकी पत्नी चंचुला दोनों ही व्यभिचार युक्त जीवन यापन करते थे बिंदुक को अंत में प्रेत योनी प्राप्त हुई पर चंचुला शिव भक्ति कर शिव लोक गामी हुई वहा पारवती जी की सेवा के सोभाग्य से उसने बिंदुक को भी प्रेत योनी से मुक्ति दिलाई-शिव कृपा की महिमा अपरम्पार है

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शिव रात्रि

भगवान् शिव का अदि व् अंत किसी को भी ज्ञात

नहीं पर जब एक समय ब्रह्मा व् विष्णु में अन्यथा विवाद हुआ तब प्रभु अग्नि स्तब्ध के रूप में प्रगट

हुए तब दोनों का वेग शांत हुआ ब्रह्मा जी आकाश की ओर व् विष्णु जी पातळ की ओर गए किसी को भी अदि व् अंत ना मिला पर ब्रह्मा जी मिद्या को प्राप्त हुए पर विष्णु जी सत्य को मान दिया  तब शिव साक्षात् रूप में प्रगट हुए और निज स्वरुप को प्रगट किया वह दिन शिव रात्रि के रूप में प्रसिद्द हुआ शिव रात्रि की महिमा अपरम्पार है यह एक परिपूर्ण भक्ति सरोवर है जहा अमृत का वास है

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भक्ति के तीन प्रमुख अंग है श्रावण मनन व् कीर्तन

तीनो ही परम कल्याण मय

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शिव भक्ति में लिंग पूजन का विशेष स्थान है

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भगवान् शिव के पांच कृत्य

सृष्टि

स्तिथि

संहार

तिरोभाव

अनुग्रह

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अर्ध नारीश्वर भगवान् शिव दोनों ही रूप में प्रगट है

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नदिया

सभी नदिया जीवन दायिनी है सभी शिव कृपा की सीमा है इनका महातम अनंत है जीवन संगिनी व् जीवन सहायक है माता समान पुण्य दायिनी है इनके तट पर अर्थ धर्म काम मोक्ष सभी सदेव विधमान रहते है यह शिव कृपा का क्षेत्र है

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यज्ञ

यज्ञ की महिमा-यज्ञ की गरिमा अनंत है धर्म यज्ञ स्वयं में शिव रूप है

यज्ञ भितिरी सत्य को प्रकाशित करता है

यज्ञ में आहूति समर्पण का प्रतिरूप  है

हवन यज्ञ स्वयं सिद्ध है

प्रातः काल की हवन आहुति आयु वर्धक व् साय काल हवन आहुति धन प्राप्ति का परम सूत्र है

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दिन व् पूजा

रविवार पूजा पाप नाशक

सोमवार पूजा धन प्राप्ति हेतु

मंगलवार पूजा रोग निवारण हेतु

बुधवार पूजा पुत्र प्राप्ति हेतु

गुरूवार पूजा आयु कारक

शुक्रवार पूजा इन्द्रिये सुख

शनिवार  पूजा सर्व सुखकारी

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पूजा स्थान

तुलसी, पीपल व् वट वृक्ष के समीप

नदी का तट, पर्वत की चोटि, सागर तीर

मंदिर,आश्रम, पवन धाम, गुरु की शरण

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पार्थिव पूजन परम सिद्धि प्रद

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लिंग पूजन

देह से कर्म-कर्म से देह-ये ही बंधन है

शिव भक्ति इस बंधन से मुक्ति का साधन है

जीव आत्मा तीन शरीरो से जकड़ी है

स्थूल शरीर -कर्म हेतु

शुक्षम शरीर -भोग हेतु

कारण शरीर -आत्मा के उपभोग हेतु

लिंग पूजन बंधन से मुक्ति में परम सहायक  है

स्वयंभू लिंग की अपनी महिमा है

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रुद्राक्ष शिव नयन जल से प्रगट हुआ इसी कारन शिव को अति प्रिय है अतार्थ शिव पूजा में इसका बहुत महत्त्व है

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श्री हरी द्वारा नारद का मोह भंग और मुनि का दुःख, तब दुःख निवारण हेतु परम साधन प्रगट करना की शिव लिंगो के दर्शन से मन का दुःख दूर होता है

तब नारद जी द्वारा धरा के सभी शिव लिंगो का दर्शन भक्तिपथ को प्रकाशित करता है

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भगवान् श्री हरी विष्णु जी का प्रगटेय-शिव इच्छा से १२००० वर्ष तक कठिन तप-शरीर से जल की धाराओ का फूटना और तभी से प्रभु का नाम श्री  नारायण हुआ ब्रह्मा व् विष्णु जी मे विवाद तब पुन शिव का प्रगटेय व् ब्रह्मा जी को स्वासो से वेदों का ज्ञान देना- सत्य का मूल व् ब्रह्म की व्याख्या

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शिव पूजा व् पुष्प

कमल - मुक्ति प्रद -धन प्रद- शांति प्रद

कुशा-मुक्ति प्रद

दूर्वा -आयु प्रद

धतूरा - पुत्र  सुख प्रद

आक -प्रताप प्रद

कनेर -रोग हर

श्रंघार पुष्प -संपदा वर्धक

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मधु से शिव पूजन परम सिद्धि प्रद

ईख से पूजन परम मंगल कारक

गंगा जल से पूजन सर्व सिद्धि दायक

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धनपति कुबेर

कम्प्ल्या नगर में दीक्षित ब्रह्मण रहता था उसका पुत्र गुण निधि अवगुणों की खान था उसकी माँ उसके गुणों को छुपाती थी इसी करारन ब्रह्मण ने दोनों को घर से निकाल दिया गुण निधि ने दुखी होकर शिवालय में शरण ली मृत्यु उपरांत शिव भक्ति के कारण वह शिव कृपा का पात्र  हुआ और संसार में धनपति कुबेर के नाम से प्रसिद्द हुआ

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शिव विवाह

शिव सती विवाह चैत्र शुक्ल प्रदोस

सर्व प्रथम जगत जननी माँ कल्याणी ने दक्ष की कन्या के रूप में शिव जी को अपने भक्ति तत्व से प्राप्त किया -दक्ष के यज्ञ में शिव भाग न पाकर बहुत दुखी हुआ व् शिव जी का अपमान न सह सकी और उसी यज्ञ में देह त्याग दी

पुन हिमाचल व् मेना के घर में पारवती के रूप में जन्म लिया और अपने कठिन तप से महादेव शिव को प्राप्त किया

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अरुंधती

ब्रह्मा जी की बोहो से संध्या  का प्रगट होना व् दो विशेष वर पाना-पुन मेघा तिथि ऋषि के यज्ञ में स्वयं को समर्पित कर उनकी पुत्री का रूप [सुख] पाना और अरुंधती नाम से ऋषि वशिस्ट को पति के रूप में पाना-यह सब शिव माया का प्रताप है

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ध्रुव-ऋषि दधिची

ध्रुव भगवान् श्री हरी का भक्त था व् ऋषि दधिची भगवान् श्री शिव आराधक-दोनों में किसी बात को लेकर बेर हो गया ध्रुव ने वहुत बार दधिची के प्राण लेने की कोशिश की  और असफल रहे तब उन्होंने

श्री हरी विष्णु की मदद ली यदपि यदपि श्री हरी ने मदद की तब पर भी वह दधिची को मार नहीं पाया क्यों की दधिची शिव कृपा से पहले ही इच्छा मृत्यु का कवच पहन चुके थे और इस कारन श्री हरी दधिची के शाप से दक्ष यज्ञ में भैरव द्वारा प्रताड़ित किये  गए

सटी जी की देह त्याग के बाद भगवान् शिव ने भैरव व् काली शक्ति की रचना कर दक्ष यज्ञ विघ्वंस किया

सभी को यथोचित दंड दिया पुन देवताओं किप्रथाना पर यज्ञ पूर्ण कर सभी को पुन पूर्व परिस्थिति में बहाल  किया -दक्ष को ब्रह्म ज्ञान दे कर पुन कैलाश लोट आये

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मैना धन्या कमलावती

स्वधा की तीन पुत्रिया थी मैना धन्या कमलावती-संकादिको के शाप से मनुष्य लोक को प्राप्त हुई पर कठिन ताप से तीनो ने पारवती जानकी व् राधा की माँ बनने का गौरव पाया यह सब शिव माया का प्रताप है

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भोम -मंगल

शिव तपो तेज से प्रगट शिव मस्तक की बुँदे जब पृथ्वी पर पड़ी तो एक बालक प्रगट हुआ जिसे पृथ्वी से पुत्र रूप में स्वीकार किया तब शिव ने उसे भोम नाम दिया शिव अंश से उत्पन्न भोम ने कठिन तप अपने प्रर्रूप  को प्रगट किया शिव कृपा से वहुत वर पाए और मंगल गृह के स्वामी हुए-परम तेजेस्वी पृथ्वी पुत्र मंगल सर्व कल्याण कारी हुए

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स्वामी कार्तिकेय

तारका सुर से दुखी देवता शिव पुत्र की इच्छा में विष्णु आदि देवताओ के साथ शिव शरण में पहुचे तब श्री प्रभु के अंस से पृथ्वी पर एक बालक का जन्म हुआ जिस  जन्म में अग्नि,  सप्त ऋषियों की पत्नी, गंगा जी, पृथ्वी सभी सहाए हुई बालक जन्म से ही परम तेजेस्वी था-विश्वा मित्र ने बालक का नामकरण किया- जात संस्कार किया बदले में बालक ने उन्हें परम तत्व का ज्ञान प्रदान किया बाल्य अवस्था में ही बालक ने बहुत रक्ससो का वाद किया व् दीनो की मदद की बालक अपने तपो बल से स्वर्ग लोक में पंहुचा जहा कृतकाओ ने बालक को पुत्र रूप में अपना लिया और और उसका बहुत ही सुंदर तरीके से पालन किया एक बार पारवती जी ने उस बालक के बारे में जानना चाहा तब श्री प्रभु ने नंदी जी को उसे लेन के लिए भेजा और बड़े आदर मान से वह भगवान् शिव के पास पहुचे जहा भगवान् ने उनका अभिषेक कर दिव्या अस्त्र प्रदान किये और देवताओ के दुःख निवारण हेतु तारका सुर वद हेतु आज्ञा दी

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श्री गणेश जी

एक बार श्री पारवती जी मंदिर में स्नानं कर रही थी द्वार पाल द्वार पर था पर शिव गन होने के कारन उसने शिव को प्रवेश से नहीं रोका तब श्री पारवती जी ने स्वयं से उत्पन्न परम सोभ्य गणेश जी की रचना कर द्वार पाल हेतु द्वार पर मान दिया तभी शिव जी वहा पर आये उन्होंने शिव जी को बिना माता की आज्ञा प्रवेश से रोका तब शिव गानों का उनसे विरोध व् यद्ध हुआ तब शिव गन परस्त हुए तब शिव जी ने क्रोध  में आकर गणेश जी का मस्तक काट दिया जब यह बात पारवती जी को पता चली तो वह बहुत दुखी हुई और बहुत सी शक्तिया उत्पन्न कर विध्वंशक स्थिति प्रगट कर दी तब सभी ने श्री माँ से बहुत प्रार्थना की तब माँ ने काहा यदि मेरा पुत्र जीवित हो जाये तो में अपनी शक्तियों को रोक लुंगी तब भगवान् शिव ने लोक कल्याण हेतु कहा की जाओ उत्तर दिशा में जो जीव मेले उसका मस्तक ले आओ में इसे जीवित कर दूंगा उत्तर दिशा में सर्व प्रथम एक दांत वाला हाथी मिला देवता उसी का मस्तक काट के ले आये प्रभु ने गणेश जी के धर पर उस मस्तक को रखा और अभिमंत्रित जल से सहज ही गणेश जी को जीवित कर दिया तब श्री मा की परसंनता की सीमा न रही सभी देवताओ ने गणेश जी को बहुत से वर प्रदान किये तब महादेव ने उन्हें सीधी विनायक का वर प्रदान किया और कहा की आज से सभी देवताओं में सर्व प्रथम गणेश जी पूजा होगी तब किसी अन्य की -परिपूर्ण सिद्धि  हेतु -सभी देवताओ ने श्री पारवती जी की व् गणेश जी की परिपूर्ण  भाव से पूजा की

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विवाह

गणेश जी व् स्वामी कार्तिकेय जी के विवाह हेतु भगवान् शिव ने कहा की जो भी पहले पृथ्वी की परिक्रमा पहले कर के आयेगा उसका विवाह पहले होगा स्वामी कार्तिकेय जी तुरंत परिक्रमा हेतु चल दिए पर गणेश जी सोचा माता पिता की परिक्रमा से बढकर कोई परिक्रमा नहीं है और उन्होंने माता पिता की परिक्रमा बड़े ही आदर के साथ की- तब भगवान् शिव बहुत प्रसन्न हुआ और गणेश जी का विवाह रिद्धि व् सिद्धि के साथ कर दिया पर जब स्वामी कर्तिकाए जी जब परिक्रम कर लोटे तो उन्हें यह जान कर बहुत दुःख हुआ और वह माता पिता को प्रणाम कर अन्यंत्र चले गए भगवान् शिव तब बहुत दुखी हुए और उन्हें लेने के लिए स्वयं उनके विविद स्थानों पर गए पर कार्तिकेय जी ने आदर मान तो बहुत किया भगवान् शिव का पर घर नहीं लोटे

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त्रिपुर

दक्ष ने अपनी १३ कन्याओं का विवाह कश्यप ऋषि से किया सबसे बड़ी का नाम दिति था दिति के २ पुत्र हुए हिरान्यकशप व्  हिरण्याक्ष दोनों को भगवान् श्री हरी ने नरशिंह व् वराह रूप धारण कर वध किया पुत्र वियोग में दिति ने कश्यप जी से प्रार्थना की तब उसे ४९ पुत्र हुए सभी जल्द ही स्वर्ग को प्राप्त हुए तब दिति ने १०००० वर्ष तक कठिन से एक परम तेजस्वी बालक को जन्म दिया जिसका नाम व्रजांग हुआ उसने माता की आज्ञा से देवताओं को परास्त किया पर ब्रह्मा जी के समझाने पर सभी को छोड़ दिया और इश्वर तत्व का उपदेश ले कर परम सात्विक बन गया उसकी पत्नी देवताओ से बेर रखती थी उसने अपने पति से महान पुत्र की कामना की उससे वर पाकर उसने एक परं तेजेस्वी पुत्र को जन्म दिया जो तारका सुर के नाम से प्रसिद्द हुआ उसने कठिन तपस्या कर शिव अंश को छोड़ कर किसी से ना मरने का वर पाया  तब उसने सभी देवताओ को पराजित कर बंदी बना लिया स्वामी कार्तिकेय  जी ने शिव आज्ञा से उसका वध किया और देवताओ को भय मुक्त किया उसके तीन पुत्र तारक विन्द्माली और कमलाक्ष इस बात से बहुत दुखी हुए एक गुफा में जाकर तीनो ने कठिन ताप किया और वर पाया के शिव के अतिरिक्त उन्हें कोई ना मार सके व् अपने लिए उन्होंने तीन अभेद पूरा का निर्माण कराया बल पा कर देवताओ को प्रताड़ित किया व् उनके अधिकार छीन लिए वह शिव भक्त थे इसी कारन कोई देवताओ की मदद नहीं कर सका पर श्री हरी विष्णु ने एक मुंडी की रचना की जिसने एक ग्रन्थ की रचना की जो शिव विमुख था  और और त्रिपुरो को सुनाया वह शिव विमुख हो गए  तब भगवान् शिव ने उन्हें सहज ही पुरो समेत भस्म  कर दिया -भक्तो के बड़े ही प्रेमी है शिव

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जालंधर व् वृंदा

हिमालय में एक शिव तपस्या हेतु पहुचे हम्चल ने बहुत प्रकार से प्रभु की पूजा की व् पारवती जी रोज १६ प्रकार से शिव पूजन करती थी इन्द्र ने भय भीत हो कर कामदेव को शिव तपस्या भंग करने हेतु भेजा

तभी  पारवती जी वहा पहुची और शिव मन अन्यथा गति को प्राप्त हुआ शिव ने तुरंत ही वहा कामदेव को पाया और षण भर में उसे तीसरे नेत्र  के तेज से भस्म कर दिया- रति अति व्याकुल हो शिव शरण में पहुची तब शिव ने कहा की तुम्हारा पति आज से अनंग रूप में सभी को व्यपेगा और रुकमनी के गर्भ से कृष्ण पुत्र प्रदुम्न रूप में तुम्हे प्राप्त होगा -और उस तेज को जो शिव जी के तीसरे आंख से प्रगट हुआ था ले कर सागर में प्रविष्ट करा दिया उस तेज से जल्लंधर प्रगट हुआ वह बड़ा पराक्रमी था शुक्राचार्य ने उसका विवाह वृंदा से कराया एक दिन भ्रगु ने सभा में सुनाया की रहू देत्या का सर विष्णु ने काटा था तब जल्लंधर ने देवताओ पर आक्रमण कर दिया

विष्णु अदि देवताओं से युद्ध किया सभी कोपारस्त कर दिया तब श्री विष्णु जी कहा की में तेरी वीरता से प्रस्सन हु वर मांग तब जालंधर ने वर मांगा के आप लक्ष्मी जी सहित मेरे नगर में रहे और श्री हरी विष्णु जी तब वाही रहने लगे तब वह अदि शक्ति पारवती जी की इच्छा से शिव से युद्ध करने लगा वह अपनी पत्नी की पति व्रता शक्ति से शक्तिमान था इसी कारन उसका वध असंभव था तब श्री हरी ने पारवती जी की आज्ञा से मुनि का रूप धारण किया और अपनी माया से स्वयं जल्लंधर बन गए और वृंदा का पति व्रत भंग किया तब श्री भगवान शिव ने उसका वध किया

जब यह भेद वृंदा ने जाना तो उसने श्री  हरी को शाप दिया की एक जन्म में उनकी पत्नी का हरण होगा और बानर ही उनके सहाई होगे   और वह  अग्नि में प्रवेश कर गई यह सब शिव माया है जिसका आदि व् अंत कोई नहीं पाया

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शंखचूड़ व् धर्म राज की कन्या तुलसी

मह्रिषी कश्यप की एक पत्नी का नाम दानु था वह परम साध्वी थी उसका पुत्र विप्रचिंत जो श्री हरी विष्णु भक्त था पर उसके कोई पुत्र नहीं था उसने पुष्कर तीर्थ में कठिन ताप किया तब उसकी पत्नी को एक पुत्र उत्पन्न हुआ वह शंखचूड़ नाम से प्रसिद्द हुआ उसने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा जी से श्री कृष्ण  कवच व् वरदान पाया की कोई भी उसे मार न सके ब्रह्मा जी की आज्ञा से उसने धर्म राज की कन्या तुलसी से विवाह किया शुक्राचार्य ने उसे देत्यो का राजा बनाया और देवताओ के प्रति  स्वाभाविक बेर का सन्देश दिया- उसने सभी देवताओ को परास्त किया देवता शिव शरण में पहुचे और अपना दुःख कहा शिव जी कहा में एस का इतिहास जनता हु पूर्व जन्म में यह सुदामा नाम का गोप था जो राधा के शाप से देत्या बना देवताओं के  अधिकार  हेतु  भगवान् शिव ने शंखचूड़ से युद्ध किया  यद्दपि वह देत्य था तब पर भी उसने युद्ध से पूर्व भगवान् के चरणों की वंदना की और युद्ध आरम्भ  किया शिव ने जैसे ही उसे मरने हेतु त्रिशूल उठाया आकाशवाणी हुई की जब तक इसके पास विष्णु कवच है और इसकी पत्नी पतिव्रता है इसकी मृत्यु नहीं हो सकती -तब शिव कृपा से विष्णु जी प्रगट हुए और ब्रह्मण रूप में विष्णु कवच माँगा और शंखचूड़ ने तभी वह अति प्रिय कवच उस ब्रह्मण को दे दिया वह स्वभाव से ही महादानी था उस कवच को धारण कर विष्णु जी ने तुलसी का पति व्रत भंग किया और तब भगवान् शिव ने शंखचूड़ का वध किया उधर जब तुलसी को यह भेद पता चला तो वह श्री हरी को श्राप देने लगी

तभी विष्णु जी की प्रार्थना पर शिव प्रगट हुए और तुलसी जी के शोक को दूर किया तुलसी जीको परम सिद्ध वृक्ष तुलसी का रूप दिया और कहा आज से तुम गंडक नदी बन कर सदा जेवो का कल्याण करोगी और विष्णु जी तुम्हरे तट पर पत्थर  के रूप में सदा वास करेंगे और कहा की कालांतर में तुम वैकुण्ठ में निवास करोगी और क्षीऱ सागर की पत्नी कहलाओगी तभी से तुलसे गंडक नदी के रूप में बहाने लगी एंड तुलसी के पोधे के रूप में सभी के सत्य को प्रकाशित करने लगी यह सब शिव माया का प्रभाव है

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अन्धक

एक बार भगवान् शिव देवी पारवती जी के साथ मंदरांचल पर्वत पर विहार कर रहे थे तभी पारवती जी ने अपने हाथो  से शिव जी के नत्र बंद कर दिए तभी शिव जी के मस्तक से कुछ बुँदे गिरी जिससे एक अँधा लता धरी बालक प्रगट हुआ तभी हिरयन्याक्ष नामक देत्र्य पुत्र प्राप्ति हेतु कठिन ताप कर रहा था प्रभु ने उस अन्धक को उसे दे दिया उधर हिर्यन्यक्ष व् हिरण्यकशिप दोनों का वध  श्री हरी विष्णु ने किया देवताओ के कल्याण हेतु और राज्य अपने भक्त प्रहलाद को दे दिया यधपि अन्धक राज्य का उत्तराधिकारी था पर अंधे होने के कारन वह राज्य से वंचित रह गया तब उसने कठिन ताप से प्रभु को प्रसन्न किया और ब्रह्मा जी ने उससे वर मांगने को कहा उसने पहला वर माँगा की में अँधा ने रहू और महाबली रूप में प्रसिद्द हो जाओ और मझे राज्य प्राप्त

 हो -ब्रह्मा जी ने एवं अस्तु कहा तब रज्य पा कर उसने देवताओ को जीत लिया और बहुत प्रताड़ित किया पुन शिव शक्ति की इच्छा की तब घोरे युद्ध  हुआ इस  युद्ध में शुक्र देव देत्रो की मादा कर रहे थे  तो भगवान् शिव उन्हें निगल गए तब भगवान् शिव ने अन्धक का ह्रदये भेद डाला वह तब भी नहीं मरा तब दुखी हो कर उसने भगवान् शिव की शरण ग्रहण की तो तो कृपालु भगवान् ने उसे गणपति का पद दिया बड़े ही कृपालु है भगवान् शिव उधर शुक्र देव ने उदार में भगवान् शिव की पूजा की और उदार से बहार आये

निषाद राज की कथा

निषाद एक भील था जंगल में छोटे जानवरों को मारकर अपना परिवार पालता था एक समय शिकार के लिए तालाब के किनारे बेल के वृक्ष पर अपना धनुष ले कर बैठ गया वृक्ष के निचे शिव लिंग था रात्रि में एक हिरन के परिवार पर तीन बार कमान ताना और बेल पत्र शिव लिंग पे गिरे जागरण भी हुआ इस अकारण पूजन से प्रसन्न हो शिव जी प्रगत हुए और उसके सभी पाप नस्त कर और उसका उद्धार कर दिया बड़े ही दयालु है भगवान् शिव

शिव पुराण में महान पताकियो का वर्णन है

शारीर मन और वाणी से १२ प्रकार के पाप होते है

जो जीव को जन्म जन्मान्तर तक  बंधन में रखते  है

मन के पाप

परस्त्री  की कामना

पर धन की कामना

दूसरो का अहित सोचना

अधर्म की बाते सोचना

वाणी के पाप

असत्य भाषण

अहंकार युक्त भाषण

पर निंदा

कठोर व् अनेतिक भाषण

शारीर के पाप

हिंसा करना

अभक्ष

अनेतिक कार्य करना

व्यभिचार

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मन

मन ही जीवन को जीने  की अहम् भावना का नाम है मन की कोई भोतिक सत्ता नहीं पर यह भोतिक सत्ता को पाने का परम हेतु है

मन का वास ह्रदय आकाश में

मन के पूर्व में प्रकाशमय आत्मा का वास होता है

मन के उत्तर में चित्त की सत्ता

वस्तुत आत्म बिंदु मन व् चित्त के मद्य स्थित होता है

चित चेतन का केंद्र व् मन संसारिक प्रकाश का मूल

चित सन्देश वाहक है आत्मा व् मन के मद्य

मन बाहिरी  तत्व से जुड़ा होता है आत्मा भितरी सत्य से

चित के मध्यम से दोनों एक हो कर कर्म को गति देते है

मन बाहिरी तत्वों का चित्त वृतियो द्वारा आत्मा को सन्देश पहुचता है आत्मा के आदेश पर इन्द्रियों को कर्म हेतु प्रेरित करता है 

मन की  गति अंनत है नियमित गति ही मन की शुद्धता की सूचक  है सत्य मय मन इन्द्रियों को सही दिशा दे कर जीव को ब्रह्म से मिलाने का सामर्थ रखता है

मन की शुद्धि सत्य मय जीवन की अहम् बात है

जीविका  व् अन्न मन को सर्वाधिक प्रभावित करते  है

मन प्रतिस्थित मस्तिष्क  नहीं

मन में ही बुद्धि अधिष्ठित होती है

संकल्प का उदगम स्थान मन है मस्तिष्क  नहीं

मन कभी जीर्ण नहीं होता-मन अजर है

 संकल्प मन की अद्रितीय शक्ति है

अग्नि

सूर्य चन्द्र व् अग्नि भगवान् शिव के तीन नेत्र है सूर्य आत्मा कारक, चन्द्र मन कारक व् अग्नि भोतिकता का सूत्र है अग्नि को देवताओ का मुख  भी कहा जाता है हवन की अग्नि में समर्पित द्रव्य सभी भगवान् को सक्षात रूप में प्राप्त होता है अग्नि में समर्पित और अग्नि के निमित समर्पित व् अग्नि के समक्ष समर्पित वास्तु सहज ही देवताओ को प्राप्त होती है

अग्नि के समक्ष किया गया पाठ परम फल दाई माना गया है

अग्नि ही जीवन  के प्रगटेय का परम सूत्र है

अग्नि सदा ही  स्वभाव से ऊपर की और बढती है

ज्ञान-अज्ञान

ज्ञान वह प्रकाश है जो सत्य द्वारा  आत्मा को प्रकाशित  करता है

अज्ञान वह छाया है जहा माया प्रपंच रचती है

आत्म ज्ञान

आत्म ज्ञान से अविद्या का नाश होता है और सत्य मूल स्वरुप  में प्रगट होता है जो मोक्ष कारक है आत्म ज्ञान आत्म बोध का कारन है आत्म बोध होने पर जीव शारीर में रहते हुआ भी बंधन से  मुक्त स्थिति में रहता है और जीवन यात्रा का सही स्वरुप में अनुभव करता है

भयावय मार्ग में सुख देने वाले कर्म

धर्म निष्ठ प्राणियों को यथोचित दान

छतर दान उस लोक में मान का अधिकारी बनाता है

दीप दान उस लोक को उजियारा कर देता है

यति आश्रम व् अनाथ आश्रम में योगदान उस लोक में विश्राम की व्यवस्था करता है

वृक्षा रोपण परम पुण्य दाई है यह जीवन दान के सामान फल दाई है

देव मंदिर निर्माण अनंत फल दाई है

अन्न दान -महा दान इसकी कोई तुलना नहीं

अन्न दान

अन्न दान से पितर तृप्त होते है और जीवन सही गति को प्राप्त  होता है

अन्न दान से स्वर्ग लोक का मार्ग प्रशस्त होता है

अन्न दान से भितिरी सत्य प्रकाशित होता  है

 

जल दान

अन्ना दान की तरह से ही जल दान भी परम पुण्य दाई है जल के साधन सुलभ कराना परम पुन्यदाई है

यह दोनों दोको में आत्मा की तृप्ति का कारन बनता है

वृक्षारोपण 

वृक्ष रोपण एक दिव्य कर्म हैजो व्यक्ति वृक्ष रोपण करता है वह अवश्य ही दिव्य गति को प्राप्त होता है  

वृक्षारोपण  पितिरो को उद्धारक होता है वृक्षारोपण पितरो की तृप्ति  का कारन बन कर जीव को बहुत सुख प्रदान करता है 

वृक्षा रोपणकरने वाला व्यक्ति मरणोपरांत अक्षय वास प्राप्त करता है

 वृक्षा रोपण करने वाले व्यक्ति पर नाग किन्नर गन्धर्व देवता व् ऋषि मुनि बहुत कृपा करते है 

वृक्षा रोपण करने वाला धर्म पुत्र कहा गया है वह कभी नरक की यातना नहीं भोगता-पुष्पित व् फलित वृक्ष अन्नत फल दाई  होते है

गंगा जल

धरा पर गंगा जल एक प्रत्यक्ष अमृत है

गंगा जल के सेवन  से भितिरी सत्य प्रकाशित होता है

गंगा स्नान से भोतिक  दुखो का नाश होता है

गंगा जल दर्शन मात्र से मन निर्मल होता है

शिव लिंग पर गंगा जल चड़ने से मन का कलह दूर होता है

गंगा नदी मोक्ष को देने वाली परम करुनामई माँ है

गंगा जल किसी भी  शुद्धि हेतु परम सेतु है 

पूर्ण मासी, अमावस्या व् शिव रात्रि को गंगा जी के तट पर शिव पूजा अभिष्ट फल दाई है

सोम वती अमावस्या को श्री गंगा स्नान मुक्ति कारक है

गंग सकल सुख मंगल मूला 

बिन श्रम काटेहि भाव कर शूला

परम पुनीत गंग जग माही

नमन किये तह जीव फल पाई

गंग सम दुसर एहा कुछ नाही

भाव सहित गंगा जिन पाही

भातिप्रद गंगा जग माही

भगतन हेतु प्रगटि जग माही

निज कर जनम सफल तह पाए

हर हर गंगे मुख सन गाये

हर हर गंगे

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ॐ नमः शिवायः

गुरु पित मात महेश भवानी

प्रन्वहू दीन बंधू नित दानी

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भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ

याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्  वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्

यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते

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यस्याद्के  च  विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्। सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा शर्वः सर्व

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शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम् काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्

यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्

खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे

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कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्

कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शंकरमनंगमोचनम्

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ॐ रामाया राम भद्राय राम चन्द्राया मानसा रघुनाथाया नाथाय सिताये पतिये नम

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द्वादस ज्योतिर लिंग

विश्वनाथ-मुक्ति कारक

सोम नाथ-रोग दोष निवारक

तारक नाथ-भव तारक

केदार नाथ -दिव्य ज्ञान प्रदायक

ओम्कारेश्वर-ब्रह्माण्ड ज्ञान प्रदायक

त्रियम्ब्केश्वर-  सत रज तम बोध कारक

महाकाल -मृतुन्जय

बैद्यनाथ -भक्ति मान प्रद

भीमाशंकर-शरणगत वत्सल

घुस्मेश्वर- दीन दुःख हारी

मल्लिकार्जुन-वात्सल्य  सुख प्रदायकम

रामेश्वरम -परम मोक्ष ज्ञान कारक

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पञ्च मूर्ति भगवान् शिव

इशान

तत्पुरुष

आघोर

वामदेव

सधोजात

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ॐ मृत्युंजय महादेव त्राहि माम  शरणागतम्‌, जन्ममृत्युजराव्याधि  पीड़ित कर्मबन्धनैः

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 ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌ -उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्

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ॐ शर्व भव रूद्र उग्र भीम पशुपतिये इशान महादेव नमः

ॐ अष्ट मूर्ती शिव शंकराय नमो नमः

ॐ सूर्ये मुर्तिये नमः

ॐ चन्द्रमुर्तिये नमः

ॐ पृथ्वीमुर्तिये नमः

ॐ जलमुर्तिये नमः

ॐ वहिममुर्तिये नमः

ॐ वायुमुर्तिये नमः

ॐ आकाशमुर्तिये नमः

ॐ यजमानमुर्तिये नमः

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नमामि तात शंकरं

सुरभ्य चन्द्र शेखरं

नमः उमा महेश्वरम

स्वभक्त कल्प पादपं

नमामि प्रेम मंगलम

जगत गुरु च शाश्वतं

वन्दे देवा उमा पति

सुर गुरु वन्दे जगत कारणं

वन्दे पनंग भूषणं

मृगं धरम पशुनां पतिम

वन्दे सूर्य शशांक वहिन्यं

वन्दे मुकुंद शिवम्

वन्दे भक्त जनाशयम च वरंद वन्दे शिव शंकरं

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नमो नील ग्रीवाय च शिति कंठाय च

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सर्वो वै रुद्रस्तस्मेय रुद्राय नमो अस्तु

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 शिवोहम  शिवोहम  शिवोहम

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वेद वाणी

ऋग्वेद -जिसके भीतर समस्त भूत निहित है जिससे सब कुछ प्रवृत होता है जिसे परमतत्व कहा जाता है वह एक रूद्र रूप है

यजुर्वेद -जिसे वेद प्रमाणित करते है जो इश्वर सम्पूर्ण यज्ञो तथा योगो से भजन किया जाता है जो सभी का द्रष्टा है वह एक शिव है

सामवेद-जो सभी संसारी जानो का कारण करनाये है जिसे योगी जन योग  से पाने का प्रयास करते है जिससे संसार प्रकाशित होता है वह त्रियम्बक भगवान्  शिव है

अथर्ववेद-जिसका भक्ति से साक्षात्कार होता है जो सुख-दुखातीत है अनादि ब्रह्म हैवह एक भगवान् शिव है

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पंचमुखी भगवान् शिव की महिमा अपरम्पार

है

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मंदार माला कूल ताल कपाल माल कित्त शेख राय -

दिव्यांगराय च दिगम्बराय, नमः शिवायै च नम शिवायै

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उमासहाय परमेश्वराय प्रभु त्रिलोचनाय नील कंठ प्रशान्तं

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अम्बिका पतिय उमापतय॓ नमो नमः

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स रूद्र स महादेव रूद्र परमेश्वर

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शान्तं शिवम्

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सत्य वद

धर्म चर

स्वाध्यात्मा प्रमद

मातृ   देवो भव

पित देवो भव

आचार्य देवो भव

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ॐ नामोअस्तुते देवेसाये सुरासुर नमस्कृताय भुत भव्य महा देवाय हरित पिंगल लोचनाय

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ॐ नमो भगवते सदाशिवाय सकलतत्त्वात्मकाय सर्वमंत्रस्वरूपाय सर्वयंत्राधिष्ठिताय सर्वतंत्रस्वरूपाय सर्वत्त्वविदूराय ब्रह्मरुद्रावतारिणे नीलकंठाय नमो नमः

ॐ शिवो हरो मृड़ो रूद्र पुष्कर पुष्प लोचनं अर्थीगंभ्य सदाचार सर्व शम्भू  महेश्वरम

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there had been God alone before anything -no one else was there to experience that state of bliss.

God, the infinite omniscient bliss-but, being alone, there was no one but him to enjoy that bliss. so he said-let me create a universe and divide myself into many souls that may take part in sport organized by the delusive potency of so-called Maya and play with me in my script to carry on with on the cord of hide and seek is the version of mystics on the cord of life about the supreme spirit.

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spirit, the fraction of supreme manifest from and merge in; is the sport of infinite omniscient bliss. love is the unique mansion in which the king of eternity homes the entire family of creation; as long as one resides in the mansion of love experiences bliss as deviates from bound to suffer on the verge of Maya-the delusive potency of God.

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love is the highest and most inspiring sublime principle in the creation and is the path to reach the ultimate soul mate.

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that man alone is healthy that can feel the love of creator at its divine base-divine love is supreme.

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O my lord, you are supreme bliss personified and the abode of mercy and fulfill the desire of your devotee's heart; pray to grant me the boon of unceasing love and devotion to your lotus feet.

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वृषवाहनः शिव शंकराय नमो नमः

ओजस्तेजो सर्वशासकः शिव शंकराय नमो नमः

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नमो अस्तुते शंकर शांति मूर्ति

नमो अस्तुते चन्द्र कला वत्स

नमो अस्तुते कारन कारनाये

नमो अस्तुते करभ वर्जिताये

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ॐ नमस्तुते देवेसाय नमस्कृताय भूत भव्य महादेवाय हरित पिंगल लोचनाय

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उमा जे राम चरन रत

बिगत काम मद क्रोध

निज प्रभुमय देखहिं जगत

केहि सन करहिं बिरोध

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उमा कहू में अनुभव अपना

सत हरी भजन जगत सब सपना

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सप्त लोक

भूः, भुः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यः

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सप्त द्वीप

जम्बू प्लक्ष शाल्मलि कुश क्रोच शाक पकर

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सप्त सागर

लावनोद अश्वोद ध्रतोद शरोड़ क्षारोद दधि मंडोद स्वदुदक

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मृतुन्जय महादेव त्राहिमाम शरणागतम जन्म मृत्यु जरा व्यधि पीडितं कर्म बंधने

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गणपति महिमा

विघ्न विनाशक गणेश  जी की महिमा अपरम्पार है समस्त  लोको  में गणेश जी की पूजा अलग अलग तरीके से की जाती है  पर भूलोक में इसका विशेष महत्त्व है इच्छित लाभ पाने हेतु यह सुगम साधन हैसरवन मॉस व् भादो में गणेश जी की पूजा का विशेष महत्त्व है  पोश माह में भी शतभिषा नक्षत्र में श्री गणेश पूजा अभिस्ट फल दाई है प्रत्येक माह में चतुर्थी को गणेश पूजा परम सिद्ध मानी  गयी है पाप नाशक व् सिद्धि के दाता है श्री गणपति भगवान्

ॐ श्री गणेशाय नमः

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श्रावण माह

श्रावण माह शिव पूजा हेतु परम सिद्ध है यह मोक्ष कारक माह है इस माह में निरंतर प्रतिदिन भक्ति भाव से शिव पूजा अर्चना व् शिव लिंग पर गंगा जल चड़ने से मन निर्मल हो जाता है जीव के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते है वह सहज ही निज स्वरुप को प्राप्त होता है शिव भक्तो के लिए यह माह वरदान के सामान है शिव प्राप्ति का द्वार है श्री सावन माह इस माह में की गए पूजा कठिन से कठिन कष्ट का निवारण कर देती है

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Efforts are directed towards discovering him outside our self but the kingdom of the almighty lord is within self and easy to trace_

speak him, will listen to

concentrate him, will manifest for

meditate upon, will reach at

submit self, will unite

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wealth-power, fame never satisfy anyone being of transitory nature-ups and down are bound to be the fate alike life but the truth of eternal joy lies in love that divine one

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consciously absorb and concentrate unto the mercy of lord at the inner plane that manifests the highest degree of love and bliss-presence of supreme being close by will be experience

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ॐ नमो भगवते रुद्राय नमः

ॐ दक्षिणा मूर्ति शिवाय नमः

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चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु

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The pleasure of the world is not a true subject for human-for true human realization unto self is the subject in life

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The path of devotion and love to the ultimate soul mate is not for the timid hearted-one must have firmness and courage and should step onto the path as a valiant warrior enter the battlefield of true loves known as devotees.

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The insoluble mystery of is solved by the grace of the Lord when one attains refuge in the lord and practice truth unto self

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Miracle of peace can happen if love replaces hatred

श्री नारद मुनि प्रसंग

तब नारद गवने सिव पाहीं

जिता काम अहमिति मन माहीं

बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं

 जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं

तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ

चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ

संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान

भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान

छीरसिंधु गवने मुनिनाथा

जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा

हरषि मिले उठि रमानिकेता

बैठे आसन रिषिहि समेता

बोले बिहसि चराचर राया

बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया

काम चरित नारद सब भाषे

जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे

अति प्रचंड रघुपति कै माया

जेहि न मोह अस को

रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान

तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान

ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा

तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा

नारद कहेउ सहित अभिमाना

कृपा तुम्हारि सकल भगवाना

करुनानिधि मन दीख बिचारी

उर अंकुरेउ गरब तरु भारी

बेगि सो मै डारिहउँ उखारी

पन हमार सेवक हितकारी

श्रीपति निज माया तब प्रेरी

सुनहु कठिन करनी तेहि केरी

बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार

श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार

तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा

बिस्वमोहनी तासु कुमारी

श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी

करइ स्वयंबर सो नृपबाला

आए तहँ अगनित महिपाला

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी

बड़ी बार लगि रहे निहारी

करौं जाइ सोइ जतन बिचारी

जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी

जप तप कछु न होइ तेहि काला

हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला

मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ

एहि अवसर सहाय सोइ होऊ

अति आरति कहि कथा सुनाई

करहु कृपा करि होहु सहाई

आपन रूप देहु प्रभु मोही

आन भाँति नहिं पावौं ओही

जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा

करहु सो बेगि दास मैं तोरा

जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार

सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार

गवने तुरत तहाँ रिषिराई

जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई

सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल

देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल

जेहि दिसि बैठे नारद फूली

सो दिसि देहि न बिलोकी भूली

धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला

कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला

दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा

तब हर गन बोले मुसुकाई

निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई

बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा

तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा

पुनि जल दीख रूप निज पावा

तदपि हृदयँ संतोष न आवा

फरकत अधर कोप मन माहीं

सपदी चले कमलापति पाहीं

देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई

जगत मोर उपहास कराई

बीचहिं पंथ मिले दनुजारी

संग रमा सोइ राजकुमारी

बोले मधुर बचन सुरसाईं

मुनि कहँ चले बिकल की नाईं

सुनत बचन उपजा अति क्रोधा

माया बस न रहा मन बोधा

पर संपदा सकहु नहिं देखी

तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी

मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु

सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु

असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु

स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई

भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई

भलेहि मंद मंदेहि भल करहू

बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू

डहकि डहकि परिचेहु सब काहू

अति असंक मन सदा उछाहू

करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा

अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा

भले भवन अब बायन दीन्हा

पावहुगे फल आपन कीन्हा

बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा

सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा

कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी

करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी

मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी

 नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी

श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि

निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि

जब हरि माया दूरि निवारी

नहिं तहँ रमा न राजकुमारी

तब मुनि अति सभीत हरि चरना

गहे पाहि प्रनतारति हरना

मृषा होउ मम श्राप कृपाला

मम इच्छा कह दीनदयाला

मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे

कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे

जपहु जाइ संकर सत नामा

होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा

कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें

असि परतीति तजहु जनि भोरें

जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी

सो न पाव मुनि भगति हमारी

अस उर धरि महि बिचरहु जाई

अब न तुम्हहि माया निअराई

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नमामि भक्त वत्सलं

कृपालु शील कोमलं

भजामि ते पदांबुजं

अकामिनां स्वधामदं

तमेकमभ्दुतं प्रभुं

निरीहमीश्वरं विभुं

जगद्गुरुं च शाश्वतं

तुरीयमेव केवलं

भजामि भाव वल्लभं

कुयोगिनां सुदुर्लभं

स्वभक्त कल्प पादपं

समं सुसेव्यमन्वहं

अनूप रूप भूपतिं

प्रसीद मे नमामि ते

पदाब्ज भक्ति देहि मे

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ॐ भूर्भुव स्वः  तत् सवितुर्वरेण्यं  भर्गो देवस्य धीमहि  धियो यो नः प्रचोदयात्

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यज्ञ बरत नियम धर्म सब संकल्पजन्य है संकल्प से इन सब  की पूर्ति होती है 

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निर्मल मन मंगल कारी

अनिर्मल मन अमंगल कारी

धर्म

आदर्श धर्म-आदर्श धर्म है सत्य को सदेव मान देना

सहज धर्म-सहज धर्म है सदाचारमय जीवन के प्रति आस्था

परम धर्म-परम धर्म है अहिंसा

धर्म सहायक सूत्र

असहाय की मदद करना

भूके को अन्न की व्यवस्था करना

विनम्र भाव से सेवा

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साहन भूति

साहन भूति एक विशेष योग है जो मन के विकार को हर लेता है

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भगवान् के दूत

संत, महात्मा व् सत पुरुष

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संकल्प

संकल्प एक इच्छा पूर्ति का योग है संकल्प मन की शक्ति का दूसरा नाम है-संकल्प से सिद्धि का योग प्रगट होता है-संकल्प से जीव साधन व् ब्रह्म दोनों को पाने में सक्षम हो जाता है संकल्प में जीव का सत्य प्रगट होकर कर्म को रूप देता है  सही समय सही विधि व्  सही प्रयोजन हेतु लिया गया संकल्प सहज फल दाई होता है

मानस रोग

मानस रोग कहहु समुझाई

तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई

नर तन सम नहिं कवनिउ देही

जीव चराचर जाचत तेही

नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी

ग्यान बिराग भगति सुभ देनी

सुनहु तात अब मानस रोगा

जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला

तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला

काम बात कफ लोभ अपारा

क्रोध पित्त नित छाती जारा

प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई

 उपजइ सन्यपात दुखदाई

बिषय मनोरथ दुर्गम नाना

 ते सब सूल नाम को जाना

ममता दादु कंडु इरषाई

हरष बिषाद गरह बहुताई

पर सुख देखि जरनि सोइ छई

 कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई

अहंकार अति दुखद डमरुआ

 दंभ कपट मद मान नेहरुआ

तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी

त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका

 कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान

जाने ते छीजहिं कछु पापी

 नास न पावहिं जन परितापी

बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे

मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे

राम कृपाँ नासहि सब रोगा

जौं एहि भाँति बनै संयोगा

सदगुर बैद बचन बिस्वासा

संजम यह न बिषय कै आसा

रघुपति भगति सजीवन मूरी

 अनूपान श्रद्धा मति पूरी

एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं

 नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं

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After the death no one returns to this side to tell the truth but in life alone one find the truth just by adoring truth

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supreme lord is within self-one needs to dive deep with tangible support of true name to experience the grace, there take a holy dip and wash away the blemishes of karma and love itself will manifest up to fill the heart with bliss

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आत्म बोध  कर एक ही ज्ञाना

शिव तत्व जग महू सुजाना

शिव धर्म उर माहि निज धरा

नित नित आत्म रूप निखारा

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प्राकृत मुक्त मोक्ष कहलाई

प्राकृत ब्रमित बंध दुखदाई

शिव समान नहीं कोई उपकारी

सुर नर मुनि दिव्या तन धारी

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शिव भक्ति सन पुण्य न दूजा

उर महू करे जीव जो पूजा

शिवहि सकल जग कारण कारक

शिवहि मूल शिवहि भव तारक

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पञ्च जाप महू ब्रह्माण्ड समाया

पञ्च भूतन कर मूल रमाया

पञ्च जाप मंत्र जग माही

सब बिधि गुरु ज्ञान फल दाई

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जीवन सन्देश

सभी से प्रेम निस्वार्थ प्रेम करो

सभी के प्रति सद्भाव रखो

सभी को यथोचित मान दो

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ॐ नमः शिवायः

शिव  सामीप्य_

बाल चन्द्र

जटा

त्रिपुंड

कुंडल

त्रिशूल

सर्प

श्री श्री गंगा जी

शिव सारुप्य

श्री श्री गणेश जी

स्वामी कार्तिकेय

श्री श्री गौरी जी

शिव सानिग्द

भगवान् नंदिश्वेर

शिव सालोक्य

संत महात्मा

ऋषि मुनि

दिव्य आत्मा

शिव भक्त

शिव केवलं

सत्य

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आत्मतत्वाय नम स्वाहा

विद्यातत्वाय नम स्वाहा

शिवतत्वाय नम स्वाहा

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शिव पूजा सहायक सूत्र

रुद्राक्ष

त्रिपुंड

पंचाक्षरी

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भक्ति वह तत्व है जो शिव को सर्वाधिक प्रभावित करता है

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सत्य वह प्रकाश है जिससे शिव दर्शन होता है

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शिव सत्य की परम सीमा है

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शिव सर्वज्ञ है

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शिव सर्वभूतात्मा है

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शिव अतुल्य है

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शिव भक्ति के नो अंग

श्रवण

कीर्तन

मनन

सेवन

दास्य भाव

अर्चन

वंदन

साख्या

आत्म नेवेदन

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जीवन का आधार सत्य है

सत्य अनंत है

जीव का सत्य आत्मा

आत्मा का सत्य परमात्मा

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सत्य स्वयं में परिपूर्ण होता है सत्य की सत्ता परिपूर्ण होती है 

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सत्य ही परम ब्रह्म है

सत्य की महिमा अद्रितिय है

सत्य ही तप है

सत्य परम यज्ञ है

सत्य ही परम आदरणीय  है

सत्य सदेव सजग रहता है

सत्य ही सोने वाले जीव में जगता है

सत्य परम पद है

ज्ञान में सत्य की हि सत्ता निहित है

धर्म में सत्य का मान ही प्रकाशित है

तीर्थ में सत्य का वास होता है

सत्य ही यज्ञ तप दान व् ब्रहचर्य है

सत्य के प्रभाव से सभी गृह अपनी धुरी तह करते है

सत्य ही ओमकार है

तुला के एक पलड़े में असख्य अश्मेघ यज्ञ का हल व् एक में सत्य -सत्य का पलड़ा सदा भरी रहता है

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शिव विद्या

एक - ब्रह्म एक है उसी की परिपूर्ण सत्ता है वही     पूजनीय है

दो-जीव व् ब्रह्म, ब्रह्म परिपूर्ण है व् जीव की     परिपूर्णता ब्रह्म से ही रचित है

तीन-ब्रह्म विष्णु महेश- त्रिदेव

       सृष्टी पालन और संघार के कारण करनाये

       सत रज तम-त्रिगुण

       सुख दुःख व् मोक्ष की सीमा

चार-सत्य- दया- ताप- दान {धर्म के चार पद }

      प्रगट धर्म के चार पद कलि मऊ एक प्रदान    येन केन विधि दीन्हे दान कराही कल्याण

      अर्थ धर्म काम मोक्ष

      {मनुष्य जीवन के चार पथ }

पांच-पंच भूत-आकाश अग्नि वायु जल पृथ्वी

      पंच भूतो के पाच गुण

      शब्द दर्शन स्पर्श रस गंध

      पंच कर्म इन्द्रिये

      पंच ज्ञान इन्द्रिये

      पंच मुखी भगवान् शिव

छह-छह मुखी भगवान् कार्तिकेय

सात- सात प्रकाश पिंड- गृह

        सप्त  सागर- सात दिन

        सप्त धातु

आठ -अष्ट मुखी भगवान् शिव

      आठो दिशाओं के अधिष्ठित देव

      अष्टांग योग के कारण कारणाय

नो -नव शक्ति नव दुर्गा

     नव  गृह

     भक्ति के नव अंग

शुन्य-पुन आरम्भ

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शिव स्वरोदन

निरंकार नित्य एवं आकार रहित परमात्मा से ही आकाश की उत्पत्ति हुई

आकाश से वायु का पदार्पण

वायु से तेज का अतार्थ अग्नि का

अग्नि से जल का

जल से धरा का अतार्थ पृथ्वी का

पञ्च की माया और शिव माया रचित पञ्च तत्व

पञ्च तत्व के पांच गुण

शब्द आकाश से

वायु से स्पर्श

तेज से दर्शन

जल से रस

पृथ्वी से गंध

आकाश का गुण मात्र शब्द

वायु का गुण शब्द व् स्पर्श

तेज का गुण शब्द  स्पर्श  व् दर्शन

जल का गुण शब्द  स्पर्श दर्शन व् रस

पृथ्वी का गुण शब्द  स्पर्श दर्शन रस व् गंध

पृथ्वी सर्व गुनी प्रकृति की जननी

प्रकृति से जीव की संज्ञा

जीव में मनुष्य का वाचस्व

मनुष्य

मनुष्य भगवान् का एक दिव्या रूप जो देवताओ को भी दुर्लभ

जीव साक्षात् शिव अंश

प्रकृति के गुणों से परिपूर्ण

पञ्च भूतो से बना शरीर,

पञ्च भूतो के पञ्च गुण

पांच कर्म इन्द्रिया

पांच ज्ञान इन्द्रिया

यह २० तत्व पृथ्वी जनित

तीन अलोकिक तत्व जो शिवमय गुणों से परिरूर्ण

सत- रज -तम

प्रतीकात्मक तीन स्वरुप_

 मन  बुद्धि व् गुणात्मक अहंकार

यह तीनो आत्मा के गुण कहे जाते है

२४ वा तत्व स्वयं आत्मा  है

और २५ वा स्वयं परमात्मा

२५ तत्वों के ग़ठऩ से हुई जीव की संज्ञा

हां जीव और ब्रह्म संयुक्त है तो जीवन है

तीन शरीर में २५ का विभाजन

आत्मा तीन शरीरो से जकड़ी है

स्थूल शरीर  -पञ्च भूत जनित

शुक्ष्म शरीर -इन्द्रियों के उपभोग हेतु

कारन  शरीर -आत्मा का मूल केंद्र

इससे भी परे एक शरीर होता है जहा इश्वर का वास होता है यह शरीर सत्य से परिपूर्ण व् कारन शर्रेर के पास होता है

स्वयं से स्वयं की इच्छा कर प्रभु से घटना क्रम में जीव की रचना कर स्वयं ही मुक्त होते हुआ बंधन को रूप दिया

और बंधन से मुक्ति का भेद भी इसी जीव के भीतर सुनिश्चित किया, मन बुद्धि व् अहंकार के निग्रह से जीव स्वयं के सत स्वरुप   तक पहुच सकता है

निज दर्शन के भेद में छुपा है ब्रह्म भेद

कर्म से देह- देह से कर्म, यही माया है

सासों की गति ही जीवन की संज्ञा है

सांस का आना जीवन है यही देह की क्रिया का मूल भी सत्य है कर्म और ज्ञान की रूप रेखा इसी स्वास की दूर से बंधी  है यह स्वास सत्य व् असत्य के भेद से परिपूर्ण है स्वास का एक अंग पूर्णता चन्द्र प्रभावित है और दूसरा सूर्य प्रभावित चन्द्र गति व् सूर्य गति का भेद ही जीवन है

शिव के तीन नेत्र है सूर्य चन्द्र व् अग्नि

बाई स्वास चन्द्र गति -दाई  स्वास सूर्य गति व् मद्य गति सुषिमं

चन्द्र गति शीतल

सूर्य गति तेज प्रद

व् सुषिमं परिवर्तक

एक गति काल १८० मिनट

चन्द्र गति मूल स्वरुप  में पूर्ण मासी से आरंभ

सूर्य गति मूल रूप से अमावस्या से आरंभ पर कई भेदों के कारन गति का आरम्भ व् समय सीमा परिवर्तनिये  हो सकती है

चन्द्रमा के स्वर में दिन का आरंभ हो व् सूर्य स्वर में अंत येही सुभ गति कारक है

सोम बुध गुरु व् शुक्र वार को चन्द्र गति{ इडा}  परम लाभप्रद

रवि मंगल शनि को सूर्य गति{  पिंगला] स्वयं सिद्ध

देह की सभी नाडियो में सभी तत्व प्रवाहित होते है

सबसे पहले वायु तत्व और अंत में आकाश

सोकर उध्ते समय जो स्वर चल रहा हो उसी हाथ का  मुख पर भाव स्पर्श  पुण्य गति दायक है

उपभोग स्त्री गमन व्यापार में सूर्य स्वर लाभप्रद

भक्ति समर्पण में चन्द्र स्वर सिद्ध

स्थूल रूप में मनुष्य शरीर में-

सिर में आकाश तत्व

कंधो में अग्नि तत्व

नाभि के मूल में वायु तत्व

घुटनों में पृथ्वी तत्व

पाँव के अंतिम भाग में जल तत्व

स्वाद

आकाश तत्व -कडुवा

अग्नि तत्व -तीखा

वायु तत्व- कट्टा

जल तत्व- कसेला

पृथ्वी तत्व-मधुर

गृह व् तत्व

आकाश तत्व -गुरु   

अग्नि तत्व -मंगल सूर्य

वायु तत्व- शनि

जल तत्व- सोम शुक्र

पृथ्वी तत्व-बुध

जो स्वर चलता हो उस और पैर रख कर यात्रा आरंभ करे यह शुभ प्रद होता है

शरीर व् तत्व

आकाश  -नाना छिद्र 

अग्नि  -अभिसंताप

वायु - प्राण

जल - क्लेद

पृथ्वी-आधार

सभी से जुदा ब्रह्म आत्म

जीवन में युग

सतयुग- बाल्यावस्था

त्रेता   -योवन

द्वापर -  प्रोढ़ावस्था

कलियुग-  वृदावस्था

युगांतर -पुनर्जन्म

लोक में तम जैसे जीवन में मोह

जीवन में ज्ञान जैसे ब्रह्माण्ड में ज्योति

व्यावहारिक तत्व

ब्रह्म तत्व

आत्म तत्व

प्रकृति तत्व

त्रिगुण स्वरुप

सत गुण

राज गुण

तम गुण

सत गुणी मन

दयावान करुनामय धर्मज्ञ सत्य निष्ठ धैर्य स्मृति भगवत ज्ञान

रजो गुणी मन

चंचल दुःख बाहुल्य अहंकार असत्य क्रोध काम लोभ मद भय अविश्वास

तमो गुणी मन

हिंसक अधर्म अज्ञान अकर्मशिलता पाखंड अविद्या भय आलस्य क्रूरता

तत्व गुण

आकाश- सत गुणी

वायु -रजो गुणी

अग्नि -सत व् रजो गुणी

जल -रजो गुणी

पृथ्वी -सत-रज-तमो गुणी

पञ्च वायू

प्राण -ह्रदय में

अपान -नाभि से निचे

सामान -नाभि मंडल

व्यान -समस्त शरीर

उदान -हृदय से मस्तिष्क

एकादस रूद्र

प्राण

अपान

सामान

उड़ान

व्यान

कुर्म

कृक्कल

नाग

देवदत्त 

धनंजय

रूद्र 

पृथ्वी तत्व के प्रतीक

हड्डी

मांस

खाल

नाडिया

रोम

जल तत्व के प्रतीक

वीर्य

रक्त

मज्जा

मूत्र व्

लार

 तेज  तत्व के प्रतीक

भूख

प्यास

नींद

क्रांति व्

आलस्य 

वायु तत्व के प्रतीक

चलना

दोड़ना

ग्रंथि युक्त

सिकुंड़ना

फेलना

आकाश तत्व के प्रतीक

प्रेम

लज्जा

भय

द्वेष

मोह

अष्ट सिद्धि

अणिमा -अपने को अणु के सामान बना लेना

महिमा -अपने को पर्वत के सामान विशाल बना लेना

ऌधिमा -अपने को रुई के सामान बना लेना

गरिमा -अपने को लोहे के सामान भरी बना लेना

प्राप्ति -चन्द्रमा को उंगली के अगले भाग से छु लेने को रूप देना

प्राकाष्य -सभी प्रकार की इच्छाओ से पूर्ण हो जाना 

ईशित्व -सृष्टि उत्पन्न करने की शक्ति का प्रगटेय

वशित्व -सभी का शमन करने हेतु शक्ति का प्रगटेय

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आत्मा ध्वनि तरंगो से प्रभावित होती है जो नियम बद्द तरीके से आत्म कोष में पहुचती है यह कर्म कोष से आत्म कोष का भेद सहज नहीं-आत्मा चित  के माद्यम  से मन को प्रभावित  कऱती है मन इन्द्रियों को प्रभावित करता है 

चित की गरिमा

धारणा -ध्यान- समाधी

चित को किसी विशेष धेय से बाघऩा धारणा है

चित को किसी के निमित पुन पुन एक करना ध्यान  है

चित को श्तूल गति प्रदान कर स्वयं अतमा के साथ लीं हो जाना समाधी है

मुक्ति पथ

सृष्टी के पञ्च तत्व

पञ्च तत्व रचित माया के भेद

भेद का ज्ञान

ज्ञान में भक्ति का समावेश  और

इस युक्ति का शिव चरणों में समर्पण ही मुक्ति पथ है

सत रज तम से बना शरीर पञ्च भूत व् इन्द्रियों के दर्श हेतु परमात्मा की सुन्दर रचना है यह मनुष्य जीवन भोग व् मोक्ष का कारन कारनाये है

यह दृश्य जीव हेतु ही है

सत प्रद जीव मोक्ष पाते है

रज प्रद पुनर्जन्म

तम प्रद अन्यथा स्थिति को प्राप्त होते है

सत प्रद हेतु सत्य का बोध परम आवश्यक

सत्य के बोध हेतु तत्वज्ञ का ज्ञान आवश्यक है

तत्वज्ञ से ही जीव आत्मा सत्य पर पहुचता है

आत्म सत्य पाने पर ही जीव निज स्वरुप

का दर्शन पाता है

आत्मा का मन संयोग

मन का इन्द्रियों से योग

इन्द्रियों का पञ्च भूतो से योग

येही बंधन है

ज्ञान भक्ति व् समर्पण से जीव सत्य को प्राप्त होता है

अन्यथा संसारी कर्म कर जीव रज या तम गति को प्राप्त होता है

इन्द्रियों का सदुपयोग जीव को सत्य की और ले जता है

इन्द्रियों का दुरुपयोग जीव को तामस की और ले जाता है

सच्चा ज्ञान सर्वोपरी पर भक्ति के बिना अधुरा

समर्पण  के बिना भक्ति  अधूरी है

बुद्धि अन्तः कारन को प्रभावित करती है 

मन बुद्धि  को प्रभावित करता है

अहंकार मन को प्रभावित करता है

अहंकार ही जीव संज्ञा का हेतु है

अहंकार मुक्त जीव ब्रह्म मार्ग पर मुक्ति का पात्र

सदाचार के मार्ग पर तमो  गुण दूर होते है

आत्म दर्शन से रजो गुण से मुक्ति संभव है

समर्पण से सत्य प्रकाशित होता है

आत्म तत्व के ज्ञान से जीव ब्रह्म विज्ञान को प्राप्त होता है ब्रह्म विज्ञान से जीव परम सत्य का साक्षात्कार करता है सत्य के साक्षात्कार से जीव माया के बंधन से मुक्त होता है सत्य एक प्रकाश है जो माया रुपी तामस को दूर करता है

सत्य अनंत है

सत्य की सत्ता भी अनंत है

सत्य का स्वरुप  भी अनंत है

सत्य दिव्य है

सत्य पंचभूत व् उनके गुणों की सत्ता से भिन्न है पर उनका संयोग सत्य को पाने में सहायक हो सकता है

अहंकार सत्य के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक और समर्पण प्रतीकात्मक सहायक पृथ्वी पर माया का वाचास्व है माया के आधीन सभी जीव जंतु पर सचेत हो कर कर्म करने से जीव माया के अन्धकार से सहज ही पार हो सकता है

तत्व ज्ञान हो जाने पर स्वत ही वैराग्य पथ प्रकाशित हो जाता है योग शिखोप्निषद में ब्रह्मा को महेश्वर यह रहस्य प्रगट करते है परम तत्व के ज्ञान से ही मन स्थिर हो सकता है मन की स्थिरता ही मुक्ति का साधन बनती है मन को जितने का साधन है तत्व ज्ञान

परमात्मा न चक्षुओ का विषय है ना मन का पर तत्व ज्ञान के साधन से मन स्थिर होने पर जो गति प्राप्त होती है वहा परमात्मा अपने मूल स्वूरूप में प्रगट हो कर जीव को वह स्थिति देता है जिससे जीव उसका अवलोकन व् अनुभव कर गोरवान्वित होता है यह स्थिति परमानन्द की अनुभूति के सामान है

माया मरी न मन मरा

मर मर गए शरीर

माया तृष्णा न मिटे

कह गए संत फ़कीर

जा स्वामी ने तन दियो

वाको भी कर ख्याल

न जाने केहू सांस  में

ले जाए यम  प्राण

जीव स्थति

जाग्रत-परिपूर्ण चेतना

स्वप्न -चेतना पर भोतिकता से भिन्न [नींद ]

सुषुप्ति -चेतना पर आत्मा के सामीप्य शांति की आगोश में [गहरी नींद]

रथ

शरीर रथ है

आत्मा रथी

मन सारथि

इन्द्रिय अश्व है

वृतिया रासे

पथ_

सत्य व् असत्य भी

धर्म व् अधर्म भी

मन अम्रत भी है और विष भी

मन के माध्यम से ही आत्मा भोगो का अनुभव करती है

मन के माध्यम से ही आत्मा ब्रह्म को प्राप्त  होती है

यात्रा

ब्रह्म से बिछड़ने  के बाद दुःख संताप व् पीड़ा ही जीव का भाग्य बन जता है वह परिवर्तन के निमित हो जाता है गति उसे तरसा देती है वह शांति चाहता है स्थिरता चाहता है पर अहंकार के वेग में बहे चला जाता है

आकाश  से वायु

वायु से मेघ

मेघ से जल

जल शस्य

शस्य से शुक्र

शुक्र  से गर्भ

गर्भ से योनी

योनी के भोग

भोग से कर्म

कर्म से बंधन

और पुन वही चक्र व्यूह, पर मनुष्य योनी वह पड़ाव है जहा पहुच कर जीव इस चक्र व्यूह का भेदन कर पुन ब्रह्मा को पा सकता है   जहा स्थिरता शांति व् परमानन्द है

विशुद्ध ज्ञान ही वह अमृत है जो शिव प्राप्ति का परम साधन है केवलं का प्राप्ति कारक मात्र  विशुद्ध ज्ञान और परिपूर्ण समर्पण है